Wednesday 29 December 2010

सुक्रात आये हमारे स्कूल

हाल ही की बात है - सुक्रात हमारे स्कूल आये. कहीं शायद जन्नत में भी बात चल रही थी कि भैय्या गजब का एक स्कूल है धरती पर, देखने लायक. इसलिए, करीब दो हज़ार साल के बाद सुक्रात धरती पर आये, और पहुँच गए सीधे हमारे स्कूल.
     बड़ा सा गेट है स्कूल की चारदीवारी पर - और उस में है दरवज्जा. ऊपर एक बोर्ड है - जिस पर लिखा है - "आदर्श विद्यालय, बालकों और बालिकाओं के लिए उत्कृष्ट शिक्षा". वहीँ पर मिल गए बड़े गुरूजी. सुक्रात जी तो और भी बड़े गुरूजी. दीखते ही उन्होंने पूछ डाला - 'ये आदर्श से क्या मतलब है आप का?'
     बड़े गुरूजी को दिखा कि कोई नाटा-सा मोटा बुड्ढा दो हज़ार साल पुराना लिबास ओढ़े उनसे सवाल पूछ रहा है. लेकिन आदर्श विद्यालय के प्राचार्य जो थे. उन्होंने अपने आप को संभाला और सभ्यता से उत्तर दिया: 'जी, आदर्श और उत्कृष्ट, दोनों का मतलब है कि बहुत अच्छा है हमारा स्कूल.'
     'इतनी हिंदी तो मुझे भी आती है,' सुक्रात जी ने कहा (जन्नत के वही चिकने टाइप के लोगों के साथ रह कर उनकी सहनशीलता थोड़ी कम हो चली थी). 'ये अच्छा क्यों कहते हैं आप अपने आपको?'
     बड़े गुरूजी दरवज्जे के आधे ही अन्दर थे. वे सोचने लगे कि अन्दर जाएँ या बहार आकर जवाब दें. उन्होंने भांप लिया कि कोई लम्बी बात वाला बुड्ढा है, और सुक्रात जी की कोहनी पकड़ कर उन्हें ही स्कूल के अन्दर खींच लिया. 'जनाब अच्छा इसलिए है क्योंकि हमारे बच्चों के रिजल्ट बहुत अच्छे आते हैं.'
     'रिजल्ट याने?'
     'जी, परीक्षा में अंक, और क्या.'
     सुक्रात जी ने एक हलकी सी फुंफकार मारी और अपने लिबास से थोड़ी से दो हज़ार साल पुरानी धूल झाड़ी और बोले, 'अच्छे अंक तो बच्चों को पीट कर भी लाये जा सकते हैं.'
     'लेकिन हम तो इतना ज्यादा नहीं पीटते हैं. वैसे भी अब तो कानून के तहत...'
     'पिटाई से मुझ को मतलब नहीं - कहने कि बात ये है कि अच्छे अंक पिटाई से लाये जा सकते है या नक़ल कर के भी. तो सिर्फ अच्छे अंक आ जाने से ही तो आप अपने आप को उत्कृष्ट विद्यालय नहीं कह सकते?'
     अब हमारे बड़े गुरु जी भी तो कोई कम थोड़े ना हैं. तपाक से बोल पड़े - 'अरे, ना पिटाई से, ना नक़ल से, बरन अच्छी पढ़ाई से हमारे बच्चे अच्छा करते हैं.' और उतनी ही तपाक से फँस भी गए.
     'तो अच्छी पढ़ाई से क्या मतलब है आप का?'
     'अच्छी पढ़ाई? अच्छी पढ़ाई याने... याने टीचर रोज़ नियमित पढ़ाता है, तयारी करता है, समझाता है, मीठी वाणी बोलता है...'
     'वैसे तो नियमित आकर भी कोई कमज़ोर तरीके से पढ़ा सकता है, है ना?'
     बड़े गुरूजी ने थोड़ा सोचा. अंत में बोले, 'अब तर्क के दृष्टिकोण से देखें तो हाँ, संभव तो है... कि समय पर आकर भी कोई साधारण ही पढ़ाता हो.' लेकिन ये कहते हुए वे थोड़े कम खुश दिख रहे थे.
     किन्तु सुक्रात जी भी तो सुक्रात जी ही थे ना. इतने से वे कहाँ मानने वाले थे. बोले: 'तो हमने देखा कि नियमित होना अच्छी पढाई के लिए एकदम अनिवार्य बात नहीं है. कुछ और चाहिए है. देखें तैयारी को. कोई गलत तैयारी भी कर सकता है, और ज़रूरी नहीं कि तैयारी करनी के बाद सच में वैसा ही पढ़ाये जैसी तैयारी की थी. अच्छी पढ़ाई के लिए तो कुछ और चाहिए है.'
     अब तक गुरूजी का भेजा फ्राई होना शुरू हो चुका था. उन्होंने अपने मेहमान के लिए चाय का आर्डर देने का विचार छोड़ दिया. पर इस सब से अनभिज्ञ, सुक्रात जी रोड रोलर की तरह बढ़ रहे थे. 'ये "समझाने" को अच्छी पढ़ाई क्यों कहा जाता है?'
     'मतलब?'
     'मतलब ये कि बहुत सारी बातें तो कौशल कि तरह होती हैं, जैसे तीरंदाजी या घुड़सवारी.' (सुक्रात जी अभी भी वही दो हज़ार साल पुराने और टिकाऊ टाइप के उदहारण का उपयोग कर रहे थे, लेकिन उनकी बात हस्त कौशल और मौलिक लेखन और कंप्यूटर गेम्स पर भी लागू हो सकती थी.) 'तो कौशल वाली बातें तो खुद कर के ही सीखी जाती हैं.'
     गुरूजी की आँखें सांकरी होने लगी थीं. उन्हें समझ में नहीं आ रहा था कि उन्हें गुस्सा आना चाहिए या उनकी हवाइयां उडनी चाहिए.
     उधर सुक्रात जी की आँखें हलकी सी बंद सी हो रही थीं. वे अपने पूरे प्रवाह में थे - दो हज़ार साल बाद कोई मुर्गा जो पकड़ में आया था. 'और फिर ये तो आप मानेंगे ही कि शिक्षा का बहुत बहुत बड़ा उद्देश्य है व्यक्ति के चरित्र का निर्माण करना. इधर फिर से, केवल समझाना काफी नहीं है. छात्र तो शिक्षक के आचरण, उसके व्यवहार, उसके खुद के जीने के तरीके से सीखता है. इसके आलावा तर्क करना तो बहुत ही महत्वपूर्ण है. तर्क से ही छात्र के अपने विचार पकते है और उसके ताप में ही उसका चरित्र फौलाद कि तरह मज़बूत बनता है.'
     गुरूजी को तर्क का ताप तो बहुत मिल रहा था लेकिन उनके अन्दर का चरित्र चरमराता प्रतीत हो रहा था. इससे पहले कि वह पूरी तरह पिघल जाए, उन्होंने पूछ डाला: 'लेकिन समझाने से परीक्षा में मदद तो मिलती है; ये तो आप को मानना होगा?'
     सुक्रात जी एक क्षण के लिए चुप थे. गुरु जी ने सोचा कि राहत कि सांस ली जाये. इतने में सुक्रात जी ने धीरे से पूछा: 'तो क्या आप चरित्र की परीक्षा लेते हैं?'
     'हैं?' साइकिल के टायर से निकलती हवा की नक़ल करने के अंदाज़ में गुरूजी से आवाज़ निकली.


अब कहाँ जा कर यह डायलोग ख़त्म हुआ? क्या बड़े गुरूजी सुक्रात जी को वापस जन्नत में ठेलने में सफल हुए? क्या सुक्रात जी ने आखिर स्कूल के नाम से 'आदर्श' और 'उत्कृष्ट' भी हटवा दिया (और शायद 'स्कूल' भी!). पढ़िए अगली पोस्ट में!!

पी एस - चाहें तो अपनी ओर से डायलोग बना कर भी भेज सकते हैं; मैं कुछ उदहारण आगे की पोस्टों में शामिल करूँगा.











Sunday 12 December 2010

कहीं आप पाठ्यपुस्तक के शिकार तो नहीं?

हम अपने बचपन से ही पाठ्यपुस्तकों के इतने आदि हो चुके हैं कि हमें ख्याल ही नहीं आता कि वे मुश्किलें भी पैदा कर सकती हैं. अगर आप शिक्षक हैं, या किसी भी तरह से शिक्षा से जुड़े हैं, तो पाठ्यपुस्तकों के इन तीन पहलुओं पर ज़रूर गौर करें - ये ऐसे हैं कि आपको या आपके बच्चों को सच में नुकसान पहुंचा सकते हैं!
  • पहला, ना जाने क्यों, बहुत सारे लोग पाठ्यपुस्तक को ही पाठ्यचर्या समझ लेते हैं! सोचा जाता है कि शिक्षक का काम याने पुस्तक 'पूरा' करना. जैसे कि इसके अलावे कुछ और हो ही ना. दुर्भाग्य से किसी भी पाठ्यचर्या में इतना कुछ होता है जो कि पुस्तक द्वारा कवर नहीं किया जाता - जैसे, दूसरों के सामने आत्मविश्वास से बोलना, दूसरों से बहस करते हुए भी उनके दृष्टिकोण का आदर करना, तर्कसंगत रवैय्या अपनाना, समस्याएँ सुलझाना, सृजनशीलता और कल्पना, वैज्ञानिक मानसिकता...  ये ऐसे उद्देश्य हैं जो कि 'अध्यायों' या 'पाठों' के माध्यम से पूरे नहीं किये जा सकते हैं. हाँ, ऐसी पाठ्यपुस्तकें ज़रुर बनाई जा सकती हैं जिनमें ये पहलू हों, पर क्या आपका कभी इनसे पाला पड़ा है? इसलिए, पाठ्यपुस्तकों पर पहला आरोप है: पाठ्यपुस्तकें शिक्षा को उन बातों तक सीमित कर देती हैं जो पुस्तकों में समा सकती हैं, और वो शामिल भी नहीं करती हैं जो कि किया जा सकता है.
  • दूसरे, सीखने कि शुरुआत या खोज-बीन का बहाना (जिसके सहारे बच्चा खुद जूझ कर अपनी समझ की रचना करे) बनने कि बजाये, पाठ्यपुस्तकें खुद ही अपने आप में एक अंत बन जाती हैं. हम सब ने ये वाक्य ज़रूर सुना होगा, कि पाठ्यपुस्तकें वेद-पुराण की तरह बन गयी हैं - जिन पर सवाल नहीं उठाया जा सकता है, और जिनमें शामिल की गयी बातों का बिना कुछ पूछे पालन किया जाना है. आज के ज़माने में क्या किसी शैक्षिक सामग्री की ये भूमिका हो सकती है? इसलिए, दूसरा आरोप: पाठ्यपुस्तकें साधन की जगह साध्य बन चुकी हैं.
  • तीसरा, और सबसे बड़ा 'जुर्म' है कि पाठ्यपुस्तकें बहुत बड़ी तादाद में बच्चों को सीखने की प्रक्रिया से बाहर रखने के लिए ज़िम्मेदार हैं. वे शिक्षक को बाध्य करती हैं कि वह सभी को एक ही गति से पढाये, सभी एक ही पन्ने पर हों और एक ही चीज़ पर काम कर रहें हों. बहुत सारे बच्चे, विशेष तौर पर वंचित पृष्ठभूमि से आने वाले, इस गति पर नहीं चल पाते हैं. न ही उनके सीखने के तरीके किताब में कहीं झलकते हैं. इस सब के आलावा, पुस्तकें तथाकथित 'मानक' भाषा में लिखी होती हैं जो कि बच्चों की घर की भाषा से अलग होती है, और ऐसी संस्कृति दर्शाती है जो उनके लिए परे होती है. (मेरा विश्वास न करें, किसी   पाठ्यपुस्तक को उठायें और अपने आप से पूछें कि अगर आप झुपड़पट्टी या सड़क पर रहने वाले या आदिवासी बच्चे  होते, तो क्या आपकी दुनिया इस किताब में कहीं भी झलक रही है.) धीरे-धीरे, ये बच्चे कक्षा में चुप होते जाते हैं औरे सीखने की प्रक्रिया से बाहर हो जाते हैं, या कभी-कभी तो स्कूल से ही... अतः, तीसरा आरोप: पाठ्यपुस्तकें बच्चों को हाशिये पर लाने औरे सीखने से बाहर करने, और जो पहले से ही वंचित हैं उनसे और मौके छीनने के लिए ज़िम्मेदार हैं.
तो क्या इसका मतलब यह है कि पाठ्यपुस्तकें होनी ही नहीं चाहिए? जी नहीं, इसका मतलब है की पाठ्यपुस्तकों की ये कमज़ोरियाँ बिलकुल भी मान्य नहीं हैं, और आगे बनने वाली किताबों का रूप, गुण और उपयोग पहले से कहीं अलग होना चाहिए! किस तरह अलग? ये ही तो आप हमें लिख कर सुझायेंगे!