आम तौर पर यही माना जाता है कि हमारा काम है पाठ्यपुस्तक को अच्छे से 'कवर' करना. लेकिन कोई भी पाठ्यपुस्तक अपने आप में पूरी शिक्षा के बराबर नहीं होती. वास्तव में वह उसका हिस्सा ही होती है, और तय किये गये लक्ष्यों को हासिल करने के लिए मात्र एक सामाग्री. यानी, वह साध्य वहीँ बल्कि एक साधन है. यहाँ तक कि बहुत सारे देशों में तो पाठ्यपुस्तक ही नहीं होती. और हमारे गुरुकुलों में भी नहीं होते थी, क्योंकि गुरु ही तय करते थे कि कौन क्या सीखेगा, कितना और कैसे सीखेगा.
वास्तावे में तो पढ़ाने की सही दिशा मिलती है पाठ्यचर्या (curriculum) से. यह बताता है कि हमारे यहाँ चल रही शिक्षा के महत्वपूर्ण उद्देश्य क्या हैं, किस तरह के बच्चों व समाज की कल्पना की गयी है, विषयों का क्या महत्व समझा गया है, और चाही गयी शिक्षा का व्यवहारिक रूप देने के लिए क्या सुझाया गया है.
इसी का एक हिस्सा होता है पाठ्यक्रम (syllabus) जो कि मुख्य तौर पर विषयों पर केन्द्रित होता है, कक्षानुसार सीखने के लक्ष्य, उनके क्रम व अनुपात (यानी कितना पढ़ाना है) को साफ़-साफ़ रखता है. यह भी बताता है कि मूल्यांकन में किन बिन्दुओं पर कितना जोर होगा.
हालाँकि पाठ्यपुस्तक को पाठ्यचर्या व पाठ्यक्रम के आधार पर ही बनाया जाता है, सीखने के कई लक्ष्यों को पुस्तक में शामिल ही नहीं किया जा सकता - जैसे कि प्रवाह से भाषा का प्रयोग करना, तर्क करना, वैज्ञानिक मानसिकता, व सामाजिक कौशलों का विकास, आदि, आदि. इस बात को मानना ज़रूरी नहीं है - अपने यहाँ के पाठ्यचर्या व पाठ्यक्रम का उठायें और पाठ्यपुस्तकों से तुलना कर के देख लें.
तो फिर पढ़ाएंगे कैसे? प्लानिंग कैसे करेंगे कि क्या पढ़ाना है, किस क्रम में, और कितना? जी हाँ, सही बताया आपने - पाठ्यचर्या व पाठ्यक्रम को ध्यान में रखते हुए पाठ योजना / पढ़ाने की योजना बनायेंगे. इस योजना में उपयुक्त जगह पर पाठ्यपुस्तक का उपयोग भी करेंगे!
bahut sunder:-)
ReplyDeleteशुक्रिया सर !!
ReplyDeleteअति उपयोगी और सुगठित लेख। शेयर करने के लिए धन्यवाद।
ReplyDeleteबहुत उपयोगी लेख । प्रणाम धन्यवाद सर।
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