Sunday 12 December 2010

कहीं आप पाठ्यपुस्तक के शिकार तो नहीं?

हम अपने बचपन से ही पाठ्यपुस्तकों के इतने आदि हो चुके हैं कि हमें ख्याल ही नहीं आता कि वे मुश्किलें भी पैदा कर सकती हैं. अगर आप शिक्षक हैं, या किसी भी तरह से शिक्षा से जुड़े हैं, तो पाठ्यपुस्तकों के इन तीन पहलुओं पर ज़रूर गौर करें - ये ऐसे हैं कि आपको या आपके बच्चों को सच में नुकसान पहुंचा सकते हैं!
  • पहला, ना जाने क्यों, बहुत सारे लोग पाठ्यपुस्तक को ही पाठ्यचर्या समझ लेते हैं! सोचा जाता है कि शिक्षक का काम याने पुस्तक 'पूरा' करना. जैसे कि इसके अलावे कुछ और हो ही ना. दुर्भाग्य से किसी भी पाठ्यचर्या में इतना कुछ होता है जो कि पुस्तक द्वारा कवर नहीं किया जाता - जैसे, दूसरों के सामने आत्मविश्वास से बोलना, दूसरों से बहस करते हुए भी उनके दृष्टिकोण का आदर करना, तर्कसंगत रवैय्या अपनाना, समस्याएँ सुलझाना, सृजनशीलता और कल्पना, वैज्ञानिक मानसिकता...  ये ऐसे उद्देश्य हैं जो कि 'अध्यायों' या 'पाठों' के माध्यम से पूरे नहीं किये जा सकते हैं. हाँ, ऐसी पाठ्यपुस्तकें ज़रुर बनाई जा सकती हैं जिनमें ये पहलू हों, पर क्या आपका कभी इनसे पाला पड़ा है? इसलिए, पाठ्यपुस्तकों पर पहला आरोप है: पाठ्यपुस्तकें शिक्षा को उन बातों तक सीमित कर देती हैं जो पुस्तकों में समा सकती हैं, और वो शामिल भी नहीं करती हैं जो कि किया जा सकता है.
  • दूसरे, सीखने कि शुरुआत या खोज-बीन का बहाना (जिसके सहारे बच्चा खुद जूझ कर अपनी समझ की रचना करे) बनने कि बजाये, पाठ्यपुस्तकें खुद ही अपने आप में एक अंत बन जाती हैं. हम सब ने ये वाक्य ज़रूर सुना होगा, कि पाठ्यपुस्तकें वेद-पुराण की तरह बन गयी हैं - जिन पर सवाल नहीं उठाया जा सकता है, और जिनमें शामिल की गयी बातों का बिना कुछ पूछे पालन किया जाना है. आज के ज़माने में क्या किसी शैक्षिक सामग्री की ये भूमिका हो सकती है? इसलिए, दूसरा आरोप: पाठ्यपुस्तकें साधन की जगह साध्य बन चुकी हैं.
  • तीसरा, और सबसे बड़ा 'जुर्म' है कि पाठ्यपुस्तकें बहुत बड़ी तादाद में बच्चों को सीखने की प्रक्रिया से बाहर रखने के लिए ज़िम्मेदार हैं. वे शिक्षक को बाध्य करती हैं कि वह सभी को एक ही गति से पढाये, सभी एक ही पन्ने पर हों और एक ही चीज़ पर काम कर रहें हों. बहुत सारे बच्चे, विशेष तौर पर वंचित पृष्ठभूमि से आने वाले, इस गति पर नहीं चल पाते हैं. न ही उनके सीखने के तरीके किताब में कहीं झलकते हैं. इस सब के आलावा, पुस्तकें तथाकथित 'मानक' भाषा में लिखी होती हैं जो कि बच्चों की घर की भाषा से अलग होती है, और ऐसी संस्कृति दर्शाती है जो उनके लिए परे होती है. (मेरा विश्वास न करें, किसी   पाठ्यपुस्तक को उठायें और अपने आप से पूछें कि अगर आप झुपड़पट्टी या सड़क पर रहने वाले या आदिवासी बच्चे  होते, तो क्या आपकी दुनिया इस किताब में कहीं भी झलक रही है.) धीरे-धीरे, ये बच्चे कक्षा में चुप होते जाते हैं औरे सीखने की प्रक्रिया से बाहर हो जाते हैं, या कभी-कभी तो स्कूल से ही... अतः, तीसरा आरोप: पाठ्यपुस्तकें बच्चों को हाशिये पर लाने औरे सीखने से बाहर करने, और जो पहले से ही वंचित हैं उनसे और मौके छीनने के लिए ज़िम्मेदार हैं.
तो क्या इसका मतलब यह है कि पाठ्यपुस्तकें होनी ही नहीं चाहिए? जी नहीं, इसका मतलब है की पाठ्यपुस्तकों की ये कमज़ोरियाँ बिलकुल भी मान्य नहीं हैं, और आगे बनने वाली किताबों का रूप, गुण और उपयोग पहले से कहीं अलग होना चाहिए! किस तरह अलग? ये ही तो आप हमें लिख कर सुझायेंगे!

5 comments:

  1. Respected Sir,
    cylebus is like such a large pecture,that can not be discovered by a too small hole of textbook.we can make the hole larger and larger by using texts including activities,plays,tours,travels,music,games,stories,projectworks,physical-social-alive environment of schoolteachers and parents.
    n j vaja
    c r c co
    matarvania,ta.malia,d. junagadh,gujarat

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  2. Narottam Bhai, bahut sahi kaha aap ne. Textbook to keval ek saadhan hai, ya bahaana hai padhane ka. Jin saare tareekon ke aapne zikr kiya hai, un sab ko istemaal mein laana chahiye. Ummed hai ham shikshakon ko is nazariye tak pahunchne mein madad kar payenge!

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  3. हमारी शैक्षिक प्रणाली पर पाठ्यपुस्तकें इस कदर हावी हैं कि न केवल अभिभावकों व आम जनों (समाज) के बीच बल्कि स्कूल प्रणाली से जुड़े अधिकांश अध्यापकों और शैक्षिक प्रशासन के लिए भी किताबें पाठ्यक्रम और पाठ्यचर्या का पर्याय के रूप में बन चुकी हैं| अपने मानस में यह बात गहरे पैठ चुकी है कि एक अदद निर्धारित पाठ्यक्रम को आद्योपांत पूरा करवा देने से और उसके प्रश्नों के उत्तर रटवा देने से किसी विषय की समझ बन जाती है और `पढ़ाई पूरी´ हो जाती है।

    किसी निरीक्षण अथवा पर्यवेक्षण कर्ता के आते ही पहाड़े पूंछना को भी मई इसी श्रेणी में रखता हूँ|आखिर पाठ्यपुस्तक केंद्रित शिक्षा हमें इतनी अनिवार्य क्यों लगती है?

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  4. पाठ्यपुस्तक हमें इसलिए अनिवार्य लगती है क्योंकि हमारे देश / समाज में यह धारणा है की आम व्यक्ति (बच्चों को तो छोड़िये) अपने आप सोचने के लायक ही नहीं है. शिक्षक भी इसमें इतना ढल चुके हैं की वे कहते हैं: सर, आप बता दीजिये क्या करना है, हम उसे कर देंगे. और सर को भी लगता है: अगर हम बताएँगे नहीं तो भला वे करेंगे कैसे?! और 'बताने' का माध्यम है पाठ्यपुस्तक! इससे हट पाना तब ही संभव होगा जब हम और अधिक ज़िम्मेदारी उठाने के लिए तैयार होंगे. अभी तो कई सारी कमियां पाठ्यपुस्तक पर मढ़ी जा सकती हैं, लेकिन उसके बगैर जवाबदेही हमारी ही होगी! अतः पाठ्यपुस्तकें अनिवार्य समझी जाती हैं.

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  5. really sir it is very much true . these books are light houses without light jut a structures. it don;t do what they assumed to ,and expected to . when will these books glow as are children generally do when they are not in schools .

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