Wednesday 26 January 2011

सभी शिक्षण-विधियों के 'दिल' मे

पिछले दो दशकों में तो शिक्षण-विधियों में जैसे विस्फोट-सा हुआ है. सरकारी संस्थाएं, अकादमिक संस्थाएं, गैर-सरकारी संस्थाएं और अब तो IT कंपिनयां और कॉर्पोरेट इंडस्ट्री द्वारा स्थापित गैर-सरकारी संस्थाएं भी सब पढ़ाने के अपने-अपने 'अचूक' नुस्खे दर्ज कर चुकी हैं. कक्षा की प्रक्रिया को 'रुचिकर' बनाया जायेगा, 'आनंददायी' गतिविधियाँ की जाएँगी, टी एल एम् और 'सीखने की सीढ़ियाँ' उपयोग में ली जाएँगी, वगैरह.

लेकिन इन सब की तह में जाएँ, तो हमें मिलेगा यह मूल सिद्धांत - अगर शिक्षक को सच में अपने बच्चों की परवाह है, तो वह रास्ता ढूंड लेगा. इन सारी शिक्षण विधियों का मतलब तब ही है जब शिक्षक को अपने बच्चों में रूचि हो और उन्हें सीखने में मदद कर के उसे आनंद आता हो. देखा जाए तो हमारे अधिकाँश प्रशिक्षण कार्यक्रम, सामग्री और शिक्षण-विधियों का दावा होता है कि वे शिक्षक को अधिक प्रभावशाली बना देंगे. लेकिन ये ज़रूरी नहीं कि वे उन में बच्चों की ओर वह भावनात्मक प्रतिबद्धता पैदा करेंगी जो सफल कक्षा-प्रक्रियाओं की नीव होती है.

कैसे हो सकता है यह? जब तक शिक्षकों को खुद ही अपने 'शिक्षकों का प्रेम' पाने का अवसर नहीं मिला हो, वे अपने बच्चों को भी यह अनुभव नहीं दे सकते हैं. अधिकांश प्रशिक्षण कार्यक्रमों में,  इस भावनात्मक पहलू पर कम ही ध्यान दिया जाता है. यहाँ तक कि उन में भी जो शिक्षकों से अपेक्षाओं को स्वयं ठोस रूप से मॉडल करने की कोशिश करते हैं.

हाल के कार्यक्रमों में भाग लेने वाले शिक्षकों ने अपने बचपन में ऐसे ही शिक्षकों को देखा जिन्हें अपने बच्चों की विशेष परवाह नहीं थी. कुछ को तो यह भी लगता है कि अगर उनके शिक्षकों नें उनकी ओर सच में ध्यान दिया होता तो वे शिक्षक ना हो के कुछ और (बेहतर) काम कर रहे होते! इसके चलते, प्रशिक्षण के दौरान वे पाते हैं कि प्रशिक्षक को उनसे 'ऊपर' का दर्ज़ा दिया गया है, और कई बार तो भिड़ंत वाली स्तिथि रहती है. सेवा-कालीन प्रशिक्षण में तो यह और भी चुभने वाली बात बन जाती है, क्योंकि प्रशिक्षण से उनकी योग्यता या सर्विस कंडीशंस पर कोई असर नहीं पड़ता - और वे कई बार प्रशिक्षक की 'परीक्षा' लेते नज़र आते हैं, या ऊपर से हाँ कर के बाद में कक्षा में कुछ भी नहीं करते!

इसलिए बेहद ज़रूरी है कि ऐसी प्रशिक्षण प्रक्रिया हो जो सच में शिक्षकों को जोड़े, जहाँ उन्हें खुल कर अपनी बात कहने के मौके हों, वे अपने तर्क दे सकें और उन्हें गंभीरता से लिया जाये, जहाँ प्रशिक्षक उन्हें बुद्धि रखने वाले इंसान का दर्ज़ा दे. इस तरह की प्रशिक्षण प्रक्रिया शिक्षकों को एक ख़ास तरह की 'सफलता' का अनुभव देगी - अपनी खुद की समझ को रचने, अभिव्यक्त करने और प्रदर्शित करने की. और ये ही उन्हें सीखने-सिखाने की अद्भुत प्रक्रिया की ओर खींचेगी. ये वह ही अपनत्व का भाव या 'प्रेम' है जिसका अनुभव शिक्षकों ने अपने जीवन में पहले नहीं किया. अगर इस तरह से हम उनका दिल छू सकते हैं, तो शायद 'शिक्षण-विधि' की चिंता करने की ज़रूरत ही नहीं!


4 comments:

  1. sir,during the teachers training i had tried to go with ERAC and also put some child's view, they aggreed & enjoyed it soooo but sir during monitoring i m seeing the classes that as what i had seen before training so now what should i do as a crc co????

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  2. Rajeshri, thanks for writing in. Teachers need to experience taking part in activities themselves - something like 20-30 activities before they can start doing it. The 'mental' agreement comes within a short while, but change from inside takes longer.
    What would help is to plan 2-3 activities with teachers in detail, and observe/support them as they do it in the class. Don't get discouraged - it takes a little time in the beginning. Ask them first to do oral activities, then written ones, and finally the ones with TLM. More important is that they should get children to reflect and think on their own... Good luck!

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  3. thank u sir for exlant guidence.

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  4. इसलिए बेहद ज़रूरी है कि ऐसी प्रशिक्षण प्रक्रिया हो जो सच में शिक्षकों को जोड़े, जहाँ उन्हें खुल कर अपनी बात कहने के मौके हों, वे अपने तर्क दे सकें और उन्हें गंभीरता से लिया जाये, जहाँ प्रशिक्षक उन्हें बुद्धि रखने वाले इंसान का दर्ज़ा दे. इस तरह की प्रशिक्षण प्रक्रिया शिक्षकों को एक ख़ास तरह की 'सफलता' का अनुभव देगी - अपनी खुद की समझ को रचने, अभिव्यक्त करने और प्रदर्शित करने की. और ये ही उन्हें सीखने-सिखाने की अद्भुत प्रक्रिया की ओर खींचेगी. ये वह ही अपनत्व का भाव या 'प्रेम' है जिसका अनुभव शिक्षकों ने अपने जीवन में पहले नहीं किया. अगर इस तरह से हम उनका दिल छू सकते हैं, तो शायद 'शिक्षण-विधि' की चिंता करने की ज़रूरत ही नहीं!


    शत प्रतिशत सहमत !
    इसका मतलब यह कि समस्या जहाँ है ......उसे हल करने के लिए पहल कहीं और करनी होगी? पर क्या हम सब वास्तव में तैयार हैं?

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