देश भर में सैकड़ों, हजारों लोग भ्रष्टाचार के विरोध में उमड़ रहे हैं, अलग-अलग शहरों में घरों से बहार आ रहे हैं. और इस सब के पीछे, भ्रष्टाचार चुपके-चुपके हमारी कक्षाओं में जड़ पकड़ रहा है. देखने में यह इतना स्वाभाविक लगता है कि इसे भ्रष्ट्राचार की तरह देख पाना मुश्किल है. और यही कठिनाई भी है - हम व्यस्क लोग कई बार अपनी आखों के सामने हो रहे भ्रष्ट्राचार को भी नहीं पहचान पाते हैं क्योंकि यह वही संस्थागत आदत है जिसमें हम पले-बढ़े हैं.
कैसे होता है यह? उस बात से शुरू करिए जो सबके लिए सबसे ज्यादा मायने रखती है - परीक्षा के 'परिणाम'. ये इतने महत्वपूर्ण समझे जाते हैं की अगर हमें अछे 'मार्क' मिलें जिनके हम हक़दार नहीं हैं, तो भी ये मान्य हैं. यहाँ पर मैं उनकी बात नहीं कर रहा हूँ जो नक़ल या बेईमानी करते हैं, बल्कि वे जो 'आखिरी क्षण' में पढ़ कर ठीक अंक ले आते हैं, या 'वे तीन सवाल जिनकी तैयारी की थी' पाकर अच्छा परिणाम पाते हैं. इन हालातों में, तथाकथित 'इमानदार' व 'सिंसीयर' छात्र (और उनके माता-पिता) भी वे लेने से नहीं कतराते जिसके वे हकदार नहीं हैं (और यही तो भ्रष्ट्राचार है).
परिणामों पर यह जोर हमें प्रक्रिया को अनदेखा करने का प्रोत्साहन देता है. बच्चों को कहा जाता है कि जहाँ समझ में नहीं आ रहा है, वहां रट लें, और मेहनत कर के पढ़ने की बजाये इग्जाम गाइड का प्रयोग करें. इस हद तक होता है यह कि बच्चों को अगर सच में कुछ समझाने की कोशिश करो तो वे विरोध करते हैं, यह कहते हुए कि 'ये तो परीक्षा में आने वाला नहीं है.' छोटी उम्र में ही उन्होंने भ्रष्टाचार के बारे में एक महत्वपूर्ण सबक सीख लिया है - नतीजे की ओर देखो, प्रक्रिया को नज़रंदाज़ करो, और परीक्षा के पीछे के कारण की ही उपेक्षा करो: जो है सीखने को संभव और सुनिश्चित करना. आगे के जीवन में, भले ही ट्रेफिक के नियमों की बात हो या टैक्स देने की या सुरक्षा और कानून के नियमों की बात हो, सब को इसी तरह से नज़रंदाज़ और खोखला किया जाता है. उद्देश्य ये है की जो चाहते हो, कैसे भी पाओ, सिस्टम क्या है या क्यों बनाया गया है, ये सब जाए भाड़ में! और छोटी ही उम्र में ये सीखा जाता है हमारी कक्षाओं में.
इस पोस्ट का भाग २ मिलेगा इधर.
useful and give us new span of thinking
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